पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों ने चुने अपने दावेदार
पश्चिम बंगाल में चुनावी संग्राम का मंच सज चुका है, पार्टियां अपने-अपने उम्मीदवारों के नामों पर मंथन कर रही हैं। इस बीच सीपीएम को गुरुवार को सफाई देनी पड़ी कि इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ उनका हाथ मिलाना सांप्रदायिक ताकतों से गठबंधन के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। सीपीएम की पश्चिम बंगाल यूनिट के महासचिव सूर्यकांत मिश्रा ने कहा कि इंडियन सेक्युलर फ्रंट कोई सांप्रदायिक ताकत नहीं है।
यह कट्टरपंथी सांप्रदायिक ताकतों से अलग है। मिश्रा के इस साधारण से दिखने वाले बयान से बंगाल के इस सियासी संग्राम की तासीर समझी जा सकती है। टीएमसी के साथ-साथ लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन भी मुस्लिम वोटों को साधने की जुगत में है।
पश्चिम बंगाल में क्यों जरुरी हैं मुस्लिम वोटर

साथ में उन्हें यह डर भी है कि कहीं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण न हो जाए। आज हम बात करेंगे की बंगाल में बीजेपी कैसे मुस्लिम वोटों को साधने की कोशिश कर रही है और उसे कैसे फायदा होगा| आगे बढ़ने से पहले बंगाल की सियासी जंग के किरदारों समझते हैं।
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10 साल पहले लेफ्ट के सबसे मजबूत गढ़ को ध्वस्त करने वाली ममता बनर्जी बंगाल की सत्ता में हैटट्रिक लगाने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। दूसरी ओर, 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित बीजेपी ममता के किले को ढहाने का दम भर रही है।
केरल में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोक रहे लेफ्ट और कांग्रेस यहां अपनी दरक चुकी जमीन को फिर से पाने के लिए हाथ मिला चुके हैं। दोनों ने अपने समुदाय में काफी प्रभावशाली माने जाने वाले मुस्लिम धर्मगुरु पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के नए-नवेले इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ गठबंधन किया है।
पश्चिम बंगाल में 145 सीटे है मुस्लिम वोटरों के हाथ

पश्चिम बंगाल में मुख्य मुकाबला टीएमसी, बीजेपी और लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन में है। बंगाल में मुसलमानों की करीब 30 प्रतिशत आबादी है। टीएमसी और लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन में इन्हें साधने की होड़ लगी है।
ऊपर से असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM की भी एंट्री हो चुकी है। कभी ममता के बेहद करीबी रहे पीरजादा का इस बार टीएमसी के खिलाफ ताल ठोकना दीदी की मुश्किलें बढ़ाने वाला है क्योंकि मुस्लिम वोटों में बिखराव हुआ तो सीधा फायदा बीजेपी को पहुंचेगा। मुस्लिम वोटों की होड़ कहीं ध्रुवीकरण को न जन्म दे दे, यह डर ममता को भी है। क्यों अहम हैं मुस्लिम मतदाता ये भी जान लेते हैं।
पश्चिम बंगाल की आबादी में 30 प्रतिशत यानी करीब एक तिहाई हिस्सेदारी मुसलमानों की है। 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में कई सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में हैं।
46 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां 50 प्रतिशत से भी ज्यादा मुसलमान हैं। 16 सीटें ऐसी हैं जहां इनकी तादाद 40 से 50 प्रतिशत के बीच है। 33 सीटों पर मुस्लिम आबादी 30 से 40 प्रतिशत और 50 सीटों पर 20 से 30 प्रतिशत है। इस तरह करीब 145 सीटों पर मुस्लिम वोटर जीत और हार तय करने में निर्णायक भूमिका में हैं।
ममता दीदी ने अपनाई सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीती

मालदा, मुर्शीदाबाद और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में मुस्लिम आबादी हिंदुओं से ज्यादा है। दक्षिण-24 परगना, नादिया और बीरभूम जिले में भी इनकी अच्छी-खासी आबादी है।
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गृह मंत्री अमित शाह ‘जय श्री राम’ नारे से ममता के बिदकने को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। चुनावी सभाओं से लेकर इंटरव्यू तक में वह बार-बार जोर देकर कह रहे हैं कि सूबे में अब राम नवमी और दुर्गा पूजा मनाने तक पर रोक लग जाती है।
दरअसल, 2017 में दशहरा और मुहर्रम एक ही दिन पड़ा था और ममता बनर्जी सरकार ने उस दिन दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी थी। बीजेपी के लगातार हमलों की वजह से ही चुनाव आते-आते ममता को भी सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड खेलना पड़ा।
पिछले साल सितंबर में पुजारियों के लिए 1 हजार रुपये मासिक भत्ता का फैसला हो, दुर्गा पूजा समितियों को पैसे देने या फिर 11 मार्च को महाशिवरात्रि पर पर्चा दाखिले का ऐलान, ममता इनके जरिए बीजेपी के ‘तुष्टीकरण’ वार को भोथरा करने की ही कोशिश कर रही हैं।
टीएमसी, लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन और औवैसी की AIMIM के बीच मुस्लिम वोटों के लिए मची होड़ से अगर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ तो बेशक बीजेपी को पश्चिम बंगाल चुनाव में इसका फायदा होगा।
वैसे ही जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बंगाल की कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर भी जीत से चौंकाया था। इस बार समीकरण मे कैसे बदलाव होगा ये देखना अहम हैं।
रिपोर्ट – रूचि पाण्डे
मीडिया दरबार
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